ज़िन्दगी गुलज़ार है
१३ दिसंबर कशफ़
पता नहीं कभी-कभी मैं खुद को कण्ट्रोल क्यों नहीं पाती. क्या होता, अगर
आज मैं ख़ुद पर काबू रखती, लेकिन मैं हमेशा गलती कर के पछताने
वालों में से हूँ.
कॉलेज में ज़ारून के साथ होने वाली उस पहली झड़प के बाद मैंने ख़ुद को
काफ़ी संजीदा कर रखा था, लेकिन कुछ एक हफ्ते से उसका रवैया बहुत ख़राब हो
गया था. तकरीबन हर क्लास में वो ऐसे टॉपिक पर बात शुरू कर देता, जिस पर मैं बोलूं और हर उस पॉइंट पर इख्त्लात करता, जिसे
मैं पेश करूं. मैं हर दफ़ा उसे नज़र-अंदाज़ करती रही, लेकिन आज
मेरे सब्र का पैमाना लबरेज़ हो गया.
आज सर अबरार पाकिस्तान की फॉरेन पालिसी के बारे में कुछ पॉइंट
डिस्कस कर रहे थे और क्लास को उस पर रिमार्क्स देने के लिए कह रहे थे. जब तब्सिरा
(राय देना/समीक्षा/अभियक्ति) करने के लिए मेरी बारी आई, तो
मैंने कहा, “मग़रिबी (पश्चिमी देश/शख्स) के साथ हमें अच्छे
ताल्लुकात रखने चाहिए, लेकिन मुल्की मफ़ादात (भलाई) की कीमत
पर नहीं, क्योंकि आज की दुनिया में तो हमेशा कमज़ोर ममालिक
(दूसरे देश) भी अच्छे ताल्लुकात के लिए अपने मफ़ादात (भलाई) का सौदा नहीं करते,
सो हमें भी किसी के सामने नहीं झुकना चाहिए और मुल्की मफ़ादात पर
सौदा करने के बजाय ऐसे ही सर्द-ओ—गर्म ताल्लुक ठीक है.”
ख़िलाफ़ तवक्को मेरी बात पर ज़ारून जुनैद ने कुछ नहीं कहा, फिर
अचनाक सर अबरार को पता नहीं क्या ख्याल आया और उन्होंने क्लास से पूछा कि कौन से
स्टूडेंट्स फॉरेन सर्विस में जाना चाहते हैं.
चंद लोगों ने हाथ खड़ा किया था. इनमें ज़ारून जुनैद भी शामिल था. सर
अबरार ने मुस्कुरा कर ज़ारून को देखा और पूछा, “ज़ारून आप फॉरेन सर्विस में क्यों जाना चाहते हैं?”
उसने फ़ौरन कहना शुरू कर दिया था, “सबसे बुनियादी वजह तो
ये हैं कि इसमें मुस्तकबिल (भविष्य) बहुत रोशन और महफूज़ रहता है. फिर ये प्रोफ़ेशन
बहुत ग्लैमरस और चैलेंजिंग है. और फिर आप इस पोजीशन में होते हैं कि मुल्क के लिए
कुछ कर सकें.”
मुझे उसका जवाब बहुत फॉर्मल सा लगा. वही मुल्क के लिए कुछ करने के
रस्मी ज़ुमले.
“अच्छा ज़ारून अगर आप फॉरेन सर्विस ज्वाइन कर लेंगे,
तो आप किन ममालिक के साथ ताल्लुकात बेहतर करने की कोशिश करेंगे और
क्यों?”
वो कुछ देर खामोश रहा, फिर अपने मख्सूस (ख़ास/विशिष्ट) अंदाज़ में बोलने
लगा, “वैसे तो एक डिप्लोमेट का काम ही यही होता है कि वो हर
मुल्क के साथ बेहत ताल्लुकात रखने की कोशिश करे, लेकिन
मग़रिबी ममालिक के साथ ख़ास तौर पर हमारे ताल्लुकात अच्छे होने चाहिये. इसकी
बुनियादी वजह ये है कि हमारी इकॉनमी अमेरिका और यूरोप से मिलने वाले कर्ज़ों पर खड़ी
है. फिर इन मुल्कों को हम नाराज़ कैसे कर सकते हैं. इनकी मदद के बगैर हम अपने आपको
कैसे क़ायम रखेंगे. एक सुई तक तो हम बना नहीं सकते और बात करते हैं, कौमी मफ़ादात (भलाई) की.”
सौदा ना करने पर उसका इशारा वाजई तौर पर मेरी तरफ था.
“ऐसा दावा वही कौम अफोर्ड कर सकती है, जो क़ुरबानी देना जाती हो. हमारे यहाँ तो अगर गोश्त की कीमत बढ़ जाए,
तो उसे कण्ट्रोल करने के लिए हम सिर्फ़ २ दिन भी गोश्त खाना नहीं छोड़
सकते. हाँ, अगर मामला सिर्फ़ नारे लगाने का हो, तो वो बड़े शौक से लगते हैं, बल्कि वहाँ भी लगाते हैं,
जहाँ इसकी ज़रूरत भी नहीं होती क्योंकि हम एक नारे-बाज़ और करप्ट कौम
है. हैरत की बात ये है कि हम फॉरेन पॉलिसी हाट (बाज़ार) जैसे जगह पर भी ज़ेर-ए-बहस
(चर्चाधीन) लाने से नहीं चूकते. एक पाकिस्तानी के लिए तो ये बात अब्दी (endless,
unlimited) हस्सास (भावनात्मक) है कि उसे फॉरेन पोसिली जैसे मसले पर
बहस करने का मौका मिल रहा है और फिर हम जोश में जाते हैं और अफ़सोस की बात यही है
कि हमें उन चीज़ों पर जोश आ जाता है, जिस पर हमें होश से काम
लेना चाहिए. जैसे अभी मोहतरमा कशफ़ फ़रमा रही थी कि कौमी मफ़ादात (भलाई) पर सौदा किये
बगैर अगर अच्छे ताल्लुकात कायम होते हैं, तो ठीक है, वरना जैसे ताल्लुकात हैं, वैसे ही रहने दें. तो
मोहतरमा अगर सिर्फ़ अमेरीका ही हमारे साथ पूरी ट्रेड नहीं, सिर्फ़
हमारा कॉटन एक्सपोर्ट का कोटा खत्म कर दे, तो हमारा मुल्क एक
हफ्ता भी नहीं चल सकता. हम इमदाद (चंदा/सहायता) पर जिंदा रहने वाली कौम हैं और
इमदाद (चंदा/सहायता) पर जिंदा रहने वाली कौम हर चीज़ का सौदा करने पर मजबूर होती
हैं, फिर वो कौमी मफ़ादात (भलाई) हो या जाती मफ़ादात (भलाई).
वैसे भी अगर आम ज़िन्दगी में तो हर शख्स अमेरिका या यूरोप जाने को तैयार है. चाहे
इसके लिए उन्हें कोई भी कीमत अदा करनी पड़े. इसलिए मेरे ख्याल से फॉरेन पॉलिसी पर
इस किस्म के अहमक़ाना (मूर्खतापूर्ण) बयानात की गुंज़ाइश नहीं होती, जैसे बयां कुछ देर पहले मोहतरमा कशफ़ दे रही थी.”
पूरी गुफ़्तगू में उसका लहज़ा इस कदर आमीज़ (बद्तर) था कि मैं चुप
नहीं रह सकी, “सबसे पहली बात ये हैं कि मैं यहाँ फॉरेन पॉलिसी
नहीं बना रही हूँ. जो मेरे खयालात का असर इस पर होगा. वो मेरे जाति खयालात थे और
हर एक को अपनी मर्ज़ी से बोलने की इज़ाज़त होती है. हाँ, मगर
आपके इल्ज़ामात का जवाब मैं ज़रूर देना चाहूंगी.”
फिर मैं उसके नाम, निहाद वा लायेल (बुनियाद, पैदाइश)
के परखच्चे उड़ाती हुई चली गई. उसने २-३ बार मुझे रोकने की कोशिश की, मगर वो कामयाब नहीं हुआ. मैं जानती हूँ कि उसने काफी इन्सल्ट महसूस की थी,
लेकिन सर अबरार की क्लास से निकलने के फौरन बाद वो मेरे पास आया था.
उसका चेहरा सुर्ख हो रहा था और वो यकीनन मुझसे कुछ कहना कहता था. लेकिन फिर चंद
लम्हों के बाद मेरे बराबर वाली कुर्सी को ठोकर मारते हुये बाहर में सुकून की साँस
लिया, वरना जिस वक़्त वो मेरे पास आकर खड़ा हुआ था, तब मेरी साँस हलक में अटक गयी थी कि पता नहीं वो क्या करे या क्या कहे और
अपने हाथों की लरज़िश को छुपाने के लिए मैंने फाइल में रखे हुये कागजात को
उलटना-पलटना शुरू कर दिया था.
मैं उस पर ये ज़ाहिर नहीं करना चाहती थी कि मैं उससे खौफ़जदा हूँ.
लेकिन बहरलाल आज मैं वाक़ई उससे डर गयी थी. जिस वक़्त मैं क्लास में इस पर तस्दीक कर
रही थी,
तब मैंने हरगिज़ ये नहीं सोचा था कि वो मेरे बातों को इतनी संजीदगी
से लेगा. आखिर, उसने भी तो मुझ पर तस्दीक की थी. लेकिन मैंने
तो उस जैसे रॉड-ओ-अम्मल (जवाब/response) का इज़हार नहीं किया
था. लेकिन यहाँ पर ही तो पैसे का फ़र्क आ जाता है.
शायद इन लोगों के पास रुपया होता है, उनकी अना (इगो) इसी तरह
हर्ट होती है और मेरे जैसे लोगों की तो कोई अना होती ही नहीं है. शायद उसका गुस्सा
ठीक ही था.
आज
ज़िन्दगी में पहली बार कॉलेज जाकर पछता रहा हूँ. अगर मैं जानता कि आज मेरे साथ ये
सब होगा, तो मैं कभी कॉलेज ना जाता.
ये एक आम सी लड़की “कशफ़” मेरे समझ से बाहर है. वो मुझसे खौफ़ज़दा
क्यों नहीं होती? वो अपनी ज़ुबान बंद क्यों नहीं रखती? मुझे ज़िन्दगी में शिकस्त से नफ़रत है और वो मुझे मसलसल शिकस्त दे रही है.
ऐसा क्या है उसमें कि मेरा हर दांव गलत हो जाता है और वार उल्टा पड़ता है.
पिछले कई दिनों से मैं उसे हर क्लास में छेड़ रहा था, ताकि
वो कोई बात करे और मुझे इसकी इन्सल्ट करने का मौका मिले. और बिला-आखिर आज मौका मिल
ही गया था. उसके फॉरेन पॉलिसी के बारे में सुनकर मुझे ख़ास तसल्ली हुई कि मैं उसे
अच्छी तरह झाड़ सकूंगा और सर अबरार ने मुझे ऐसा करने का नादिर (बेशकीमती) मौका
फ़राहम (पेश) कर ही दिया.
मैंने उससे पूरा फ़ायदा उठाया, लेकिन मेरी बात खत्म होते ही उसने सर अबरार से
इज़ाज़त लेकर बोलना शुरू कर दिया.
अपनी बात के आगाज़ में ही उसने कहा, “ये ज़ारून साहब फ़रमा
रहे है कि ये एक फॉरेन सर्विस में इसलिए जाना चाहते हैं, ताकि
ये मुल्क के लिए कुछ कर सकें. मुल्क की जो ख़िदमत ये करेंगे, वो
तो इनके पाकिस्तानी कौम के बारे ख़यालात से ही ज़ाहिर होती है.”
मैं उसकी बात पर बुरी तरह तिलमिलाया था.
“ये अमरीका और दूसरे मग़रिबी (पश्चिमी देश/शख्स)
ममालिक (दूसरे देश) से इसलिए अच्छे ताल्लुकात चाहते हैं, क्योंकि
वो हमें इमदाद (चंदा/सहायता) देते हैं और इसलिए इनका ख़याल है कि क़ौमी मफ़ादात
(भलाई) का सौदा करने में कोई मुज़ाएक़ा (हानि) नहीं. इनके बकौल इस इमदाद पर ही ये
मुल्क चल रहा है. सो ऐसी कौम की कोई इज्ज़त नफस नहीं होनी चाहिए. मैं इनकी बात से
पूरी तरह इत्तेफ़ाक करती हूँ कि मग़रिबी ममालिक हमें इमदाद देते हैं. मगर सवाल ये
हैं कि वो ये इमदाद किसको देते हैं. इस मुल्क में दो क्लास हैं. ९८% अक़सरिय्यत
(बहु-संख्यक) वाली लोअर क्लास और २% अक़ल्लियत (अल्प-संख्यक) वाली अपर क्लास. जो
इमदाद हमें बाहर से मिलती है, वो दरअसल इस २% के काम आती है.
इस क्लास में बड़े-बड़े ब्यूरोक्रेट, बिज़नसमैन और सियासतदान
शमिल हैं और ज़ारून भी इसी क्लास के एक फ़र्द (शख्स) हैं. बैरूनी (foreign) इमदाद इसी क्लास में बैंक के क़र्ज़ और करप्शन के ज़रिये टकासी (ब्याज
लेन-देन का ढंग) होती है और मुल्की मफ़ादात (भलाई) का सौदा ना करने की सूरत में अगर
आमदनी बंद होने की सूरत में ज़ारून साहब की परेशानी समझ सकते हैं.”
“आप ज़ातियात (निजी और जाती बातें) पर उतर रही हैं.”
मैंने तिलमिला कर उसकी बात काट दी. मेरे लिए इससे ज्यादा बर्दाश्त करना मुमकिन
नहीं था और मुझे ये डर था कि अगर अब मैंने उसे ना टोका, तो
वो मेरे रहे-सहे इमेज को भी तबाह कर देगी.
लेकिन, मैंने उसे जितनी बुलंद आवाज़ में टोका था, उसकी आवाज़ जवाबन मुझसे भी बुलंद थी. उसके इत्मिनान और एक्सुयी में ज़र्रा
बराबर भी कमी नहीं हुई थी, “मैं ज़ातियात पर हमला नहीं कर रही
हूँ. क्या आप इस बात से इंकार कर रहे हैं कि आप एक बिज़नस मैन के बेटे हैं?”
“मैं इस बात को कब इंकार कर रहा हों कि मैं एक बिज़नस
मैन का बेटा हूँ.” मैं उसकी बात पर भन्ना उठा था.
“जब आप इस बात को तस्लीम कर रहे हैं, तो आप को एतराज़ किस चीज़ पर है? क्या ये बात दुरुस्त
नहीं कि बैरूनी इमदाद (विदेशी सहायता) का एक बड़ा हिस्सा अपर क्लास बैंक कर्जों में
लेती है.”
“हम जो रुपया कर्जों की सूरत में लेते हैं. इसे सूद
के साथ वापस भी करते हैं.” मुझे उस पर बे-साख्ता गुस्सा आ रहा था.
“मुझे इस बार में कोई सुबहा नहीं है कि आप वो रुपया
वापस नहीं करते, ज़रूर करते होंगे. मैं तो सिर्फ़ ये कह रही हूँ कि वो इमदाद सिर्फ़ आप लोग इस्तेमाल करते हैं, सिर्फ़ २% अपर क्लास, ९८% लोवर क्लास नहीं. क्या अब
भी आप इस बात को तस्लीम नहीं करेंगे, अपने इस एतराफ़ के बाद
भी कि आप वो इमदाद इस्तेमाल करते हैं?”
फौरी तौर पर मेरे समझ में नहीं आया कि मैं उसकी बात का क्या जवाब
दूं. आखिरी कोशिश के तौर पर मैंने सर अबरार से कहा, “सर! आप इसे रोक क्यों
नहीं रहे हैं.”
“इसका जवाब भी मैं ही आप को देती हूँ कि सर अबरार
मुझे क्यों नहीं रोक रहे हैं, क्योंकि आपने हमें करप्ट कौम
कहा है और मेरे और पूरी क्लास के साथ सर अबरार के जज़्बात भी बुरी तरह मज़रूह (आहत/hurt)
हुए हैं.”
वो सर अबरार के बोलने से पहले ही बोल उठी थी. सर अबरार की
मुस्कुराहट मज़ीद (अधिक) गहरी हो गई, वो इडियट बड़ी चालाकी से बोल रही थी.
“ज़ारून मैंने आपको भी बोलने से नहीं रोका था. आपने
भी अपनी बात मुकम्मल की थी, अब दूसरों को भी करने दें.”
मैं ख़ामोश हो गया. मेरी अपनी बढ़ाई हुई बात मेरे गले में फंदे की
तरह अटक गई थी. सर अबरार की तरफ से बात जारी रखने का सिग्नल मिलते ही वो फिर शुरू
हो गयी थी.
“सो जब हम लोगों को इस इमदाद में कुछ मिलता ही नहीं,
तो हम फिर किस चीज़ के लिए अपनी आज़ादी और खुद-मुख्तारी का सौदा करते
फिरें. इन्होंने कहा कि हम अब तक सुई तक नहीं बना सकते. अगर ऐसा है, तो इसमें हमारा कसूर क्या है? ये लोग बनायें सुई,
क्योंकि ये लोग फैक्ट्रीज़ लगाते हैं, हम लोग
नहीं. हम लोगों के पास तो फैक्ट्री लगाने के लिए रुपया ही नहीं होता और ज़ारून साहब
ने फ़रमाया है कि हम लोग दो दिन गोश्त खाना नहीं छोड़ सकते, तो
इस मुल्क की ९८% खाती कहाँ है, जो वो शुक्र करती है. गोश्त
के चोचले तो इस २% क्लास के पाले हुए हैं. ज़ारून साहब ने फ़रमाया कि हम नारेबाज़ और
करप्ट कौम है. मुझे ये सिर्फ़ एक ऐसे मुल्क का नाम बता दें, जहाँ
करप्शन होता ही नहीं. जिस अमेरीका के ये गुण गा रहे हैं, वहाँ
करप्शन होता है, फ़र्क सिर्फ़ ये है कि वो ९८% क्लास करप्शन
छोड़ भी दे, तो क्या २% क्लास छोड़ सकती हैं?”
उसका लहज़ा बेहद तल्ख़ था और मेरे लिए कुछ बोलना दुश्वार था.
“ज़ारून साहब को ये अफ़सोस है कि फॉरेन पॉलिसी हाट
बाज़ार में डिस्कस होती है. फॉरेन पॉलिसी सब्जी मंडी में भी डिस्कस होगी, बल्कि हर उस जगह होगी, जहाँ वो ९८% लोग रहते हैं.
उन्हें बात करने का हक़ क्यों नहीं? क्या वो दूसरे दर्जे के
शहरी हैं? ये जिस अमरीका की मिसाल दे रहे हैं, वहाँ पर तो कभी किसी ने ये नहीं कहा कि फॉरेन पॉलिसी पर आम लोग बात नहीं
करें. वहाँ तो ओपिनियन पोल्स के ज़रिये उनकी राय जानकार हर पॉलिसी तस्कील (Constitute)
दी जाती है. इन्होंने फ़रमाया है कि अगर अमरीका हमें कॉटन एक्सपोर्ट
करना बंद कर दे, तो हमारी मईसत (अर्थ-व्यवस्था) ख़त्म हो
जाएगी. अमरीका ऐसा करना चाहता है, तो ज़रूर करें क्योंकि इस
एकदा से भी २% अपर क्लास को नुकसान पहुँचेगा. उनकी फैक्ट्रीज़ बंद होंगी. उनके
फॉरेन टूर्स ख़त्म होंगे. वो ९८% तो पहले भी ज़िन्दगी गुजार रहे थे, तब भी गुजार लेंगे. सिर्फ़ ये फ़र्क आएगा कि पहले वो सालन के साथ रोटी खाते
थे, तब अचार या चटनी के साथ खाना पड़ेगा. तो ये उनके लिए कोई
बड़ा मसला नहीं, क्योंकि उन लोगों का सालन भी चटनी से बेहतर
नहीं होता.
वैसे अगर अमरीका हमारा कॉटन एक्सपोर्ट का ठेका खत्म भी कर दे, तो
क्या हम पहले मुल्क होंगे, जिनके साथ वो ये सुलूक करेगा?
क्या पहले उसने कभी किसी एक साथ ऐसा नहीं किया और क्या जिनके साथ
उसने ऐसा किया, है, वो मुल्क खत्म हो
गए हैं? जी नहीं. ऐसा नहीं है. वियतनाम का भी तो बायकाट हुआ
है उसने, मगर क्या वो मुल्क ख़त्म हो गया है? अगर ज़ारून साहब की नज़र इकॉनमिक अफ़ेयर्स पर रही है, तो
इन्हें मालूम होगा कि वियतनाम की इकॉनमी तेज-तरीन तरक्की करने वाली इकॉनमी में से
एक है और अमरीका के अपने सरमाया-कार (पूंजीपति) गवर्नमेंट को प्रेशराइज कर रहे हैं
कि वो भी इस बायकाट को खत्म कर दे और अमरीका ने तो चाइना को भी बायकाट किया हुआ
था. क्या चाइना ख़त्म हो गया? जी नहीं. ऐसा नहीं हुआ, बल्कि अमरीका अब चाइना के साथ रिश्ते सुधारने के चक्कर में है और इस
सिलसिले में वो अपनी मदद के लिए बकौल आपके करप्ट पाकिस्तान की मदद तलब कर रहा है.
इन्होंने कहा था कि हर पाकिस्तानी अमरीका जाने के चक्कर में होता है, तो इसमें बुरी बात क्या है? हर एक को हक़ होता है कि
बेहतर से बेहतर के लिए ज़द्दोज़हद करे. फिर भी जो पाकिस्तानी अमरीका पहुँच जाते हैं,
वो वहाँ की तरह फॉरेन अकाउंट नहीं खुलाते. इन्होंने मेरे ख़यालात को
इसलिए अहमकाना करार दिया क्योंकि वो इनकी तरह प्रो-अमरीकन नहीं थे. इनकी अपनी सोच
आज़ाद ज़मीन पर रहते हुए भी गुलामाना है, इनके लिए तो बस यही
कहा जा सकता है कि –
आप ही अपनी अदाओं पे
ज़रा गौर करें,
अगर हम अर्ज़ करेंगे
तो शिकायत होगी.”
क्लास में छाई हुई
ख़ामोशी उसके शेर पर मिलने वाली दाद से टूटी थी. मैं बिल्कुल साकित (चुप) और खामोश
था, क्योंकि कहने या करने के लिए उस वक़्त मेरे पास कुछ था ही नहीं.
सर अबरार ने उससे कहा था, “कशफ़, मैं आपके नज़रियात की
ताईद (समर्थन) करता हूँ, क्योंकि वो ठोस हकीक़त पर बनी हैं.”
मैं जैसे जहन्नुम में दहक उठा था. मुझे याद नहीं कि इसके बाद क्लास
में किसने क्या कहा. हाँ सर अबरार के क्लास से निकलने के बाद मैं सीधा उसके पास
गया था. जी तो मेरा ये चाह रहा था कि उसे कुर्सी समेट उठाकर बाहर फेंक दूं, लेकिन
फिर भी मैंने ख़ुद को संभाल लिया और उसके पास रखी हुई कुर्सी को ठोकर मारता हुआ
बाहर निकल गया. मैं क्लास से निकलने के बाद सीधा सर अबरार के कमरे में पहुँचा था.
मुझे देख वो हैरान नहीं हुए, शायद वो भी मेरी आमद की तवक्को
कर रहे थे.
“आप मेरे साथ अच्छा नहीं कर रहे हैं” मैंने जाते ही
उनसे कहा था.
“मैं क्या अच्छा नहीं कर रहा हूँ?” मुझे उनके इत्मिनाम पर मज़ीद गुस्सा आया.
“आप उसे मुझसे ज्यादा अहमियत देते हैं. उसे कुछ भी
कहने से नहीं रोकते और मेरी ठीक बात को काट देते हैं. फिर हर बात पर उसकी तारीफ़
करते हैं, चाहे वो कितनी ही आम सी बात क्यों ना हो, लेकिन मेरी तारीफ़ आप कभी नहीं करते.”
“हाँ वो किसी भी चीज़ में तुम्हारे पासंग (बराबर)
नहीं है, फिर भी वो तुम्हें लाजवाब कर देती है, बल्कि ये बेहतर होगा कि तुम्हारा हश्र-नश्र कर देती है.” सर अबरार उसी
इत्मिनान से बातें कर रहे थे, उनकी बातों पर मेरा ब्लड
प्रेशर हाई होता जा रहा था.
“सर आपकी क्लास में वो इतनी बकवास करती है, किसी और जगह नहीं बोलती.” मेरी आवाज़ बहुत बुलंद थी, इसलिए
सर अबरार के तेवर एकदम बदल गए थे.
“बिहेव योरसेल्फ. तुम किसी कबाड़ी की दुकान पर नहीं
खड़े हो, जो इस अंदाज़ में बात कर रहे हो. पिछले पांच मिनट से
मैं तुम्हारी बकवास सुन रहा हूँ. तुम क्या चाहते हो कि मैं तुम्हें गोद में लेकर
क्लास में बिठाऊं. मैं तुम्हारा प्रोफेसर हूँ, उससे ज्यादा
कुछ नहीं..”
उनके लहज़े में आने वाली तब्दीली ने मुझे बहुत तकलीफ पहुँचाई, “आप
मेरे प्रोफेसर हैं और कुछ नहीं, तो आज से पहले आपने ये बात
मुझे क्यों नहीं बताई? सर इस एक लडकी के लिए आप मुझे ये कह
रहे हैं. अगर मैंने आपको सिर्फ़ प्रोफेसर ही समझा होता, तो
कभी आपके रवैये की शिकायत करने ना आता, क्योंकि किसी भी टीचर
के अच्छे-बुरे रवैया का मेरी ज़ात पर कोई असर नहीं होता और ना ही मुझे उन से कोई
तवक्को है, मगर बात तो आपकी हो रही है, सिर्फ़ आपकी.”
“बैठ जाओ ज़ारून, ज्यादा
ज़ज्बाती मत बनो.” मेरी लंबी तक़रीर (बयान, वक्तव्य) के जवाब
में उन्होंने सिर्फ़ एक जुमला कहा था.
“मैं तब तक यहाँ नहीं बैठूंगा, जब तक आप अपना रवैया नहीं बदल देते.”
“बैठ जाओ और ज्यादा ड्रामा मत करो.” इस बार उन्होंने
मुझे झिड़क दिया और मैं ख़ामोशी से कुर्सी खींचकर उनके सामने बैठ गया.
“देखो ज़ारून तुम मुझे इस कदर अज़ीज़ हो, कोई और दूसरा नहीं हो सकता. मुझे तुमसे बहुत मुहब्बत है, इसलिए नहीं कि तुम मेरे बेहतरीन दोस्त के बेटे हो, सिर्फ़
इसलिए क्योंकि तुम शुरू से ही मेरे बहुत करीब रहे हो, मेरा
अपना कोई बेटा नहीं है और मैंने हमेशा तुम्हें अपना बेटा ही समझा है. अगर इस किस्म
का रवैया तुम्हारा साथ रख रहा हूँ, तो सिर्फ़ इसलिए कि तुम
अपने पर तनकीद (critical evaluation) बर्दाश्त करते और ज़िन्दगी
में आगे बढ़ने के लिए तनकीद बर्दाश्त करना बेहद ज़रूरी है और वैसे भी तुम्हें तारीफ़
की ज़रूरत ही क्या है? तुम जिस हद तक मुकम्मल हो, तुम अच्छी तरह जानते हो. लेकिन कशफ़ को तारीफ़ की ज़रूरत है. मैं उसके बारे
में बहुत ज्यादा नहीं जानता, लेकिन वो बहुत सी मुश्किलात का
मुकाबला करते हुए यहाँ पढ़ रही है. थोड़ी सी हौसला-अफ़जाई उसे संवार सकती है. मैं
चाहता हूँ, वो अपनी सारी तवक्को तालीम पर रखे. यहाँ का ख़राब
माहौल की भेंट न चढ़े. वो बहुत मासूम है. पता हैं कभी-कभार वो मुझे एक नन्हे से
चिकन की तरह लगती है.”
“वो नन्हा चिकन नहीं चिकन पॉक्स है. आपने उसे बोलते
हुए देखा है. ऐसा बात कर रही थी, जैसे मुझे तो दस साल पहले
फांसी दे देनी चाहिए थी.” मैं सर अबरार की बात पर गुस्सा से तिलमिला उठा, लेकिन वो हँसने लगे.
“तुम पर मेरी किसी बात का असर नहीं होता. तुम
नाकाबिल इस्लाह, आइंदा इस किस्म की फ़िज़ूल बातों के लिए मेरे
पास मत अना.”
मैं अगरचे (हालाँकि) काफी नाराज़ होकर उनके पास से आया था. लेकिन, उनकी
बातों ने मुझे मेरे काम कि बात बता दी थी. सर अबरार ये समझते हैं कि वो एक बड़ी
मासूम और पाकबाज़ लड़की है, जिसे अभी कॉलेज की हवा तक नहीं
लगी. हालांकि उन्हें ये समझ लेना चाहिए कि उसे अभी कॉलेज आये हुए ज्यादा दिन नहीं
हुए. वक़्त गुजरने के साथ-साथ वो भी कॉलेज के रंग में रंग जाएगी, क्योंकि ना वो कोई फ़रिश्ता है और ना ही आसमान से नाज़िल (उतरी) हुई है.
मैं उस के इमेज को इस तरह ख़राब कर दूंगा कि उसकी मासूमियत का
तअस्सुर (असर,प्रभाव) ख़त्म हो जाएगा. फिर मैं देखूंगा कि सर
अबरार उसे कितनी अहमियत देते हैं.
आज तक मैंने किसी आम शक्ल व सूरत की लड़की के साथ अफेयर नहीं चलाया.
अब मेरा ये रिकॉर्ड भी टूट जायेगा. एक बात मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि वो मेरा
सबसे आसान शिकार होगी क्योंकि उस जैसी मिडिल क्लास की लड़कियाँ तो हम जिसे लड़कों की
मुस्कराहट से ही मुतासिर (प्रभावित) हो जाती हैं और मेरी तरफ़ से मिलने वाले चंद
तोहफ़े उन्हें गलतफहमी में मुब्तला (फांस लेना, मुग्ध कर देना) कर देते
हैं कि हम उनके इश्क में गिरफ्तार हो गये हैं और शादी कर के उन्हें अपर क्लास में
ले आएंगे. मुझे भी देखना है कि मिडिल क्लास की ये लड़की मेरी पेश-कदमी पर किस क़दर
मुज़ाहमत (प्रतिरोध/रोक-टोक) कर सकती है. आखिर तो वो फंस ही जायेगी. मैं जानता हूँ.
Radhika
09-Mar-2023 04:34 PM
Nice
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